Sunday, September 11, 2011

चुनाव सुधार: प्लेटो का आदर्श रिपब्लिक बनाना चाहती है टीम अन्ना

भ्रष्टाचार समाप्त करने के बाद टीम अन्ना का जोर चुनाव सुधार पर है. हालांकि संसद के अन्दर सांसदों के कार्य को लोकपाल के दायरे में लाने पर वह अब भी कायम है. इसके अलावा निश्चित समय के अन्दर सरकारी काम पूरे करने के लिए कुछ पुरानी तजबीजों की जगह नागरिक चार्टर ने ले ली है. अभी यह कहना मुश्किल है कि जन लोकपाल के अपने ड्राफ्ट पर लगातार उठ रहीं उँगलियों के मद्देनज़र टीम अब चुनाव सुधार के मुद्दे पर आगे बढ़ना चाहती है ताकि उसकी सुधारवादी विश्वसनीयता कायम रह सके. या चुनाव सुधार की जुमलेबाजी का इस्तेमाल कर वह अनशन समाप्त करने को लेकर सरकार से किये गए समझौते से वापस जाकर फिर से जन लोकपाल पर दबाव बनाना चाहती है. बहरहाल चुनाव सुधार पर उसके सुझाव भी एक ख़ास मनोवृत्ति की ओर ही इशारा कर रहें है. मीडिया के जरिये टीम के जो दो सुझाव सामने आये हैं उनमे पहला है प्रत्याशियों को नामंजूर करने का अधिकार. इसके तहत अगर मतदाता चुनाव में खड़े किसी प्रत्याशी को पसंद नहीं करता है तो वह सबको नामंजूर कर सकता है. दूसरा सुझाव है चुने गए जनप्रतिनिधि को वापस लेने का अधिकार. दूसरी व्यवस्था में यदि किसी क्षेत्र की जनता अपने सांसद या विधायक से खुश नहीं है तो वह उसे वापस बुला सकती है. दोनों ही स्थितियों में उसे दुबारा चुनाव के माध्यम से दूसरा प्रतिनिधि चुनना पड़ेगा.

ऐसे वक़्त में जब राजनैतिक नेतृत्व की विश्वसनीयता जमीन पर है, एक के बाद एक घोटालों के प्रकाश में आने से लोगों में जबरदस्त गुस्सा है और आर्थिक विषमता में लगातार बढ़ोत्तरी के चलते 80 प्रतिशत अवाम के लिए जीवन कष्टप्रद होता जा रहा है, अन्ना की टीम के इन नए सुझावों में भी जनता के उस हिस्से को आकर्षित कर लेने की क्षमता है जो जन लोकपाल को सभी रोगों का राम बाण इलाज़ मान कर आजादी की दूसरी लड़ाई में अपनी कारों-बाइकों पर सवार होकर कूद पड़ा था. जाहिर है कि टीम अन्ना देश के उसी तबके से मुखातिब है जो जोर-शोर से हंगामा खड़ा कर उसके समर्थन में शहरों में सड़कों पर उतर सकता है. यह वह तबका है जिसमे से बड़े हिस्से ने नव-उदारवादी नीतियों का कुछ फायदा उठाकर हाल ही में समृद्धि हासिल की है. एन.सी.ए.ई.आर. के आंकड़े याद करिए जिनके मुताबिक़ 2001 में देश में जिस मध्यम वर्ग की संख्या कुल आबादी का महज 5 फीसदी थी, अब बढ़ कर 16 फीसदी के आस पास हो गयी है. यानी मध्य वर्ग के 20 करोड़ लोगों में 14 करोड़ ऐसे हैं जो पिछले 10 सालों में इस वर्ग में दाखिल हुए हैं. उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव ने इसके अन्दर जल्दी से जल्दी सब कुछ हासिल कर लेने की अदम्य लालसा पैदा की है. इसे सब कुछ तुरंत चाहिए. यह इंतज़ार नहीं कर सकता. यह राजनीति को गाली देता है, नेताओं को गाली देता है और सारी समस्याओं की जड़ उन्हें ही मानता है.

इसके चरित्र का सबसे अच्छा नज़ारा भी किसी मंत्री या जनप्रतिनिधि के दफ्तर में ही मिलेगा. आप किसी भी राजनेता के क्षेत्रीय दफ्तर चले जाइए इसी तबके के सैकड़ों लोगों के दर्शन आपको वहां हो जायेंगे. और यकीन मानिए कि वे वहां नेताओं को गाली देने या उनके गलत तौर तरीकों पर उन्हें आइना दिखने के लिए नहीं इकट्ठे होते हैं. इस बात के लिए किसी प्रमाण की ज़रुरत नहीं होनी चाहिए कि ऐसे अधिकाँश लोग अपने किसी ऐसे काम को करवाने के लिए वहां हाजिरी दे रहे होते हैं जो सामान्य नियम कायदों के तहत नहीं हो सकता है. मंत्री या नेता गण या तो उनके लिए कायदे-कानूनों को उनके पक्ष में तोड़-मोड़ देने का माध्यम होते हैं या आगे बढ़ने का शार्ट-कट. सबसे मजेदार बात तो यह है कि इनमे से ज्यादातर के काम अगर जनप्रतिनिधि के जरिये से हो भी जांय तो भी दो दिन बाद ये सारे राजनीतिज्ञों को गाली देते मिलेंगे. जिनके काम हल न हो सकें उनका तो खैर हक़ ही होता है गाली देने का. यह तय करना मुश्किल काम है कि इस स्थिति को लोकतंत्र की मजबूती माना जाय या मौके का फायदा उठाकर और अपने ही कम भाग्यशाली भाई बन्दों के कंधो पर पैर रखकर आगे बढ़ जाने की दौड़ में शामिल तबके का चरित्रगत दीवालियापन.

यहाँ यह याद दिलाना अप्रासंगिक नहीं होगा कि चुनाव सुधार का मसला न तो नया है और न ही ऐसा कि उस दिशा में अब तक कोई काम हुआ न हो. चुनाव आयोग ने पिछले 15 सालों में चुनाव दर चुनाव सुधार किये हैं. सुरक्षा बलों की योजनाबद्ध तैनाती, उनकी जवाबदेही तय करने, ई.वी.एम. का इस्तेमाल, प्रत्याशियों से उनकी शिक्षा, आपराधिक रिकार्ड, संपत्ति के विवरण आदि के सम्बन्ध में घोषणापत्र लेने, आदर्श आचार संहिता पर सख्ती से अमल करने जैसे क़दमों से चुनाव में धांधली जैसी घटनाओं में कमी आई है. लेकिन इनके परिणामस्वरुप विधायिकाओं और चुने हुए जनप्रतिनिधियों की गुणवत्ता में कोई सुधार होता तो नहीं दिख रहा. उलटे पिछले 20 वर्षों में इनके काम काज और साख में लगातार गिरावट आई है. सबसे खतरनाक संकेत चुनाव की पूरी प्रक्रिया में पैसे के बढ़ते महत्त्व और उसके दुरूपयोग में निहित हैं. अगर आंकड़ों पर गौर किया जाय तो यह स्पष्ट है कि वाम दलों को छोड़कर बाकी सारे दलों से चुनकर आने वाले जनप्रतिनिधियों में धन्नासेठों की संख्या बढ़ी है. आंकड़ो से इतर भी यह आम जानकारी है कि काले धन का इस्तेमाल पिछले कुछ चुनावों में लगातार बढ़ता गया है. सूरतेहाल ये हैं कि मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की.

इसी दौरान कुछ नयी बीमारियाँ भी पैदा हुयीं हैं. ऐन चुनाव से पहले मतदाताओं को लुभाने वाली घोषणाओं की संख्या लगातार बढती जा रही है. कोई 2 रुपये किलो चावल की घोषणा करके चुनाव जीतने की कोशिश करता है तो कोई टी. वी. या लैपटॉप बंटवाने की घोषणा से. ये बीमारियाँ छोटी हैं और सबकी जानकारी में होने के नाते इनकी सीमा है. पर मीडिया में विज्ञापन से आगे बढ़कर एडवरटोरिअल और पेड न्यूज़ जैसे चलन कहीं ज्यादा घातक हैं. आम जनता विज्ञापन से कहीं बहुत ज्यादा खबरों पर विश्वास करती है. इसका एक बहुत बड़ा कारण आजादी की लड़ाई के जमाने से ही पत्रकारिता का जनपक्षधर चरित्र रहा है. उसी मिशनरी जज्बे के साथ जनपक्षधर पत्रकारिता की परंपरा के चलते आज भी अवाम समाचार पत्रों और खबरिया चैनलों पर काफी हद तक आँख मूँद कर विश्वास करता है. जाहिरा तौर पर समाचार जनमत तैयार करने का सबसे प्रभावी माध्यम बनकर उभरा है. अब अगर मीडिया संस्थान केवल कमाई का जरिया बन जांय, मात्र अपने मालिकान के वर्गीय हितों के साधन के तौर पर इस्तेमाल किये जाने लगें तो उन्हें बिकाऊ होने से कौन रोक सकता है. विश्वसनीयता के अलावा खुले विज्ञापन के साथ एक दिक्कत यह भी है कि उसका खर्च पार्टी और उम्मीदवार के चुनावी खर्च में जोड़ा जा सकता है और चुनावी खर्च की हदें आयोग ने तय कर रखी हैं. पैसे देकर पक्षपात पूर्ण ख़बरें छपवा लेने में ऐसी कोई समस्या नहीं है. चुनाव में कालेधन का इससे अच्छा उपयोग कहाँ हो सकता है?

वर्तमान व्यवस्था की एक बड़ी समस्या सांसदों, विधायकों का अपने चुनावी क्षेत्र के प्रति विशेष मोह भी है. अपने क्षेत्र के लोगों को नाराज़ न करने, उसे विशेष रूप से पालने पोसने और केवल एक क्षेत्र के प्रतिनिधि की तरह बर्ताव करने की प्रवृत्ति मंत्रियो, राजनेताओं में काफी पहले से पायी जाती रही है. लेकिन सांसद और विधायक निधियों के जरिये इस प्रवृत्ति को शर्मनाक हद तक बढ़ावा मिला है. इस बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है कि सांसदों-विधायकों का काम या विधायिकाओं का काम सरकार के काम से फर्क है और क्षेत्रीय विकास का काम सरकारों खासकर पंचायती संस्थाओं तथा शहरी निकायों के जरिये होना चाहिए. पर विधायिकाओं के काम में न्यायपालिका के हस्तक्षेप का रोना रोने वाले सरकार के काम में विधायिकाओं की दखलंदाजी पर जरा भी चिंतित नहीं होते. अब अगर सांसद-विधायक नाली-पुलिया-खडंजा बनवायेंगे तो जनता उनसे इन्ही कामों की अपेक्षा करेगी ही. जाहिर है कि इससे सांसद-विधायकों का दायरा और दृष्टि संकुचित होकर अपने क्षेत्र विशेष तक सीमित रहनी ही है और वे वास्तव में न अपनी विधायिका की भूमिका के प्रति न्याय करने वाले साबित होते हैं न अधिशाषी जिम्मेदारियों को ठीक से निभा पाते हैं.

चुनाव सुधार की बहस में इस तरह के अनेको मुद्दे हो सकते हैं. लेकिन टीम अन्ना के प्राथमिक सरोकार कहीं और ही हैं. वे जो सुझाव प्रस्तुत कर रहे हैं वे हाल ही में मध्यवर्ग का हिस्सा बनी जमात के गुस्से की अभिव्यक्ति तो हो सकते हैं पर गहराई से विचार करने पर साफ़ हो जाता है कि उनका असर उल्टा ही आने वाला है. उनके सुझाव सांसदों-विधायकों की सोच और सरोकार विस्तृत करने की जगह उन्हें और संकुचित कर देने वाले हैं. नामंजूर कर देने की व्यवस्था हो या वापस बुला सकने की व्यवस्था, ये जनप्रतिनिधियों को इस बात के लिए मजबूर कर देंगीं कि वे देश की जनता के वृहत्तर भले की बजाय अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों तक सीमित रहें, उन्ही से चिपके रहें और जहाँ तक संभव हो अन्य क्षेत्रो के हक़ मारकर अपनी जगह पक्की किये रहें. लेकिन राज्य और सरकार को अधिकतम बदनाम कर उसकी जगह कार्पोरेट सेक्टर और गैर सरकारी संगठनों को बैठा देने की अपनी नव-उदारवादी मुहिम पर निकली टीम अन्ना को न तो हमारे संसदीय क्षेत्रों के आकार- प्रकार की चिंता है न उनकी विविधता का ही अहसास है. उसे किसी भी तरह की अस्थिरता की चिंता भी क्यों कर हो? बल्कि संसदीय लोकतंत्र के पैर जितना तेजी से कांपेंगे उसकी बांछें उतनी ही खिलेंगी. उसके और उसके दानदाताओं के हित तो सबसे ज्यादा तभी सधेंगे जब संसद और विधान सभाएं गूगी-बहरी तो न रहें पर लूली-लंगड़ी हो जायं.

विधायिकाओं को मजबूत करने का एक रास्ता यह भी हो सकता है कि सर्वाधिक मत प्राप्त उम्मीदवार को, चाहे उसे 20 फीसदी मत ही क्यों न मिलें हों, प्रतिनिधि चुनने की जगह सूची के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली लागू कर दी जाय. इस व्यवस्था में विभिन्न दल अपने उम्मीदवारों की सूची के आधार पर पूरे देश या प्रदेश में वोट मांगेंगे और उन्हें मिले वोटों के अनुपात में उनकी सूची से उम्मीदवार प्रतिनिधि चुने जा सकते हैं. आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली अनेको देशों में काम कर रही है. वेस्टमिन्स्टर जैसी संसदीय प्रणाली से अगर एकदम से दूसरी व्यवस्था अपनाए जाने में बाधा है तो इसे चरणबद्ध तरीके से लागू करने का विकल्प भी हमारे पास है. ऐसा नहीं है कि अन्ना की टीम के विद्वतजन इन दिक्कतों और वैकल्पिक तरीकों से सर्वथा अनभिग्य हैं. पन्द्रहवें विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में चरणबद्ध तरीके से ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली की जगह आनुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था अपनाने की सस्तुतियाँ की थी. आयोग के हिसाब से पहले चरण में 25 फीसदी सीटों पर सूची के आधार पर चुनाव कर इसकी शुरुआत की जा सकती है. इसी तरह पार्टियों के विभाजन और विलय की व्यवस्था को कायम रखने के कारण दल-बदल पर अब तक पूरी तरह रोक नहीं लग सकी है. इसमें संशोधन कर दल-बदल पर पूरी तरह रोक लगाने की ज़रुरत है. अगर कोई निर्वाचित प्रतिनिधि दल छोड़ता है तो उसे फिर से चुनाव लड़कर आना चाहिए. इस तरह के सुधारों से जन प्रतिनिधियों के अपने क्षेत्र के लोगों के प्रति संकीर्ण व पक्षपातपूर्ण रवैये को काफी हद तक रोका जा सकता है और उनकी जवाबदेही को मतदाताओं के एक छोटे से समूह को उचित-अनुचित फायदा पहुँचाने तक सीमित न रख कर उसके दायरे को व्यापक स्वरुप प्रदान किया जा सकता है.

टीम अन्ना से ऐसे सुधारों पर चर्चा किये जाने, उनकी मांग किये जाने की अपेक्षा कम ही है. उनके दिमाग में प्लेटो के उस आदर्श रिपब्लिक 'मैग्नेशिया' ने जड़ जमा रखी है जिसमे विदेशियों और गुलामों को छोड़कर न कम न ज्यादा, सिर्फ 5040 नागरिक होंगे. उनके रिपब्लिक का शासक सदिच्छा रखने वाला एक तानाशाह होगा जो ईश्वर की देखरेख में गार्जियंस की एक काउन्सिल द्वारा बनाए गए कानूनों के आधार पर शासन करेगा. आदर्श रिपब्लिक में हर नागरिक, गुलाम और विदेशी का पंजीकरण किया जाएगा और उनकी संपत्तियों और मूल्यवान वस्तुओं का पूरा-पूरा हिसाब विधि द्वारा नियुक्त मैजिस्ट्रेट रखेगा. किसी के पास कोई भी गैर पंजीकृत वस्तु पाए जाने पर राज्य उसे जब्त कर लेगा. प्लेटो के आदर्श रिपब्लिक की तरह टीम अन्ना के काल्पनिक राज्य में कोई बहुत ज्यादा गरीब नहीं हो सकेगा. उस राज्य में विधायक अधिकतम अनुमन्य गरीबी भी निर्धारित करेंगे. टीम अन्ना के ‘प्लेटोनिक रिपब्लिक’ में सबसे ज़रूरी होंगी तीन तरह की तीन जेलें. और सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था यह कि किसी कानून के अधीन सजा पाने का अर्थ साधारण शब्दों में सजायाफ्ता की मृत्यु होगी. लेकिन इस सवा अरब आबादी का क्या करें जिसमे सब के सब नागरिक हैं और 18 बरस के होते ही वोटर बन जाते हैं??

3 comments:

  1. Anna ka "naya megneshia ".....bahut hee informative aur badhiya

    ReplyDelete
  2. यह आपका एक और अच्छा सा लेख है सनत जी| बेहतर लेख के लिए बधाई| अन्ना और उनकी आत्ममुग्ध टीम के सर्व निषेधवादी भ्रामक नजरिये से इतर यह एक विकल्प देता हुआ लेख है| लेकिन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली ठेल से समझ में नहीं आई| उस पर थोडा प्रकाश और डालें तो अच्छा रहेगा| क्या चुनाव सुधारों के मद्दे नजर हम इस दिशा में भी सोच सकते हैं कि चुनावो में होने वाले उम्मीदवारों के खर्चे चुनाव आयोग उठाये? चुनाव आयोग द्वारा हर उम्मीदवार को एक निश्चित धनराशि आबंटित किया जाये और उसके अतिरिक्त उम्मीदवार किसी भी तरह का और पैसा चुनाव में लगाते हुआ पाया जाये तो तो उसकी उम्मीदवारी निरस्त कर दी जाय| मेरे इस मत में बहुत सारा झोल है, कच्चापन है| मसलन इसमे इस बात कि निश्चित गुंजाईश है कि बहुत सारे डमी उम्मीदवार केवल चुनाव आयोग से पैसा प्राप्त करने के लिए खड़े कर दिए जाय| इस मत में और भी बहुत सारी समस्या है इसीलिए मेरा कहना है कि इस मत पर नहीं इस दिशा में सोचने पर अगर कुछ बात बने तो....बाकि पुनः एक उम्दा लेख के लिए बहुत-बहुत बधाई|

    ReplyDelete