Tuesday, August 30, 2011

ठीक ही हम वहां नहीं थे : मकसद, मसीहा और जन का मिथक- II

अब जरा इस बात पर गौर फरमाते हैं कि एक छोटे से गाँव में कुछ सामाजिक सुधार जैसे काम करने वाले और महाराष्ट्र में छुटपुट आन्दोलन चलाने वाले अन्ना अचानक पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य पर कैसे छा गए. अप्रैल के महीने में अन्ना ने लोकपाल विधेयक की ड्राफ्टिंग में सिविल सोसाइटी को सम्मिलित किये जाने को लेकर दिल्ली में जंतर मंतर पर जब अनशन शुरू किया तब इस ड्राफ्ट को लेकर कई स्तरों पर काम चल रहा था. इनमे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् में सम्मिलित की गयीं अरुणा रॉय के प्रयास काफी अहम् थे. यह बात आम फहम है कि सूचना के अधिकार के लिए सर्वाधिक संघर्ष अरुणा रॉय ने ही अपने संगठन एम.के.एस.एस.के जरिये किया था और उन्ही के प्रयासों से राजस्थान में सूचना के अधिकार पर पहला अधिनियम राजस्थान में आया था. केन्द्रीय कानून की ड्राफ्टिंग में भी अरुणा रॉय का काफी योगदान रहा था. अगर सिविल सोसाइटी का मतलब गैर सरकारी स्वैच्छिक संगठनों से लगाया जाता है तो अरुणा रॉय भी सिविल सोसाइटी का ही एक हिस्सा हैं और टीम अन्ना के सदस्यों, केजरीवाल और किरण बेदी के सरकारी नौकरी छोड़ने से दो दशक से भी पहले भारतीय प्रशासनिक सेवा छोड़कर वह सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय हुयी थीं. फिर ऐसा क्या था कि अन्ना और उनकी टीम अरुणा रॉय पर भरोसा न कर मुद्दे को बीच में ही लपकने आ पहुंचे? इस बीच अन्ना की टीम ने जन लोकपाल नाम से एक ड्राफ्ट तैयार कर लिया था और उसके प्रचार प्रसार के लिए अर्ध सत्य पर आधारित अनेकों वीडिओ क्लिप्पिंग्स, लेख, वार्ताएं,पर्चे इत्यादि मीडिया और इन्टरनेट की दुनिया में उतार दिए थे.

बहरहाल सरकार ने अन्ना को हाथो हाथ लिया और काफी तेजी दिखाते हुए उसकी ओर से एक ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन कर दिया गया. हैरत की बात यह थी कि ड्राफ्टिंग कमेटी में गैर-सरकारी सदस्यों को सरकार के ठीक बराबर का दर्ज़ा दिया गया था. सवा अरब जनसँख्या वाले और लाखों गैर-सरकारी संगठनो वाले देश में सरकार को कमेटी में रखने के लिए वही गैर-सरकारी सदस्य मिले जिनका सुझाव अन्ना ने दिया. अन्ना की इस टीम की सदस्यों के ऊपर कई हलकों से सवालिया निशान भी लगाये गए. लेकिन अन्ना अपनी टीम पर अड़े रहे और सरकार तो पहले से ही मानने के लिए तैयार बैठी थी. यहीं से अन्ना ने सरकार और राज्य के समानान्तर एक प्रति-सत्ता का रूपाकार ग्रहण करना शुरू किया जिसे मास मीडिया के द्वारा थोड़े समय में ही गुब्बारे की तरह फुला कर इतना बड़ा कर दिया गया कि वह कुछ दिनों के लिए ही सही राजनैतिक आकाश को आच्छादित कर सके. यहाँ यह सवाल उठना लाजिमी है कि सरकार ने भूल वश अन्ना का कद इतना बड़ा कर दिया या इसमें किसी तरह की आपसी समझदारी काम कर रही थी?

अगर हम इसे सरकारी भूल मान लें तो यह भी मानना पड़ेगा कि सरकार के रणनीतिकार बड़े नौसिखिये थे और उन्होंने इसके बाद भी भूल पर भूल करना जारी रखा. अगले तीन महीनों में ड्राफ्टिंग कमेटी की 8 बैठकों के दौरान सरकार और टीम अन्ना के बीच तकरार चलती रही. टीम अन्ना ने इस दौरान सुनियोजित तरीके से सरकारी प्रस्तावों के खिलाफ प्रचार अभियान चलाया. लेकिन सरकार की ओर से मानव ससाधन विकास मंत्री के छुटपुट बयानों को छोड़कर न तो टीम अन्ना के घोर आपत्तिजनक प्रस्तावों का खुलासा किया गया और न ही अपने प्रस्तावों पर कोई सफाई दी गयी. अगर दोनों प्रारूपों की तुलनात्मक जानकारी के लिए कोई इन्टरनेट की दुनिया को खंगालना चाहे तो उसे 90 प्रतिशत मामलों में टीम अन्ना या इंडिया अगेंस्ट करप्शन द्वारा जारी की गयी प्रचार सामग्री के ही दर्शन होंगे. यहाँ तक कि सूचना के अधिकार पर चले आंदोलनों की पृष्ठभूमि की तलाश करने पर भी 75 प्रतिशत मामलों में अन्ना, केजरीवाल और किरण बेदी से जुड़े वृत्तान्त ही सामने आते हैं. इतने बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान चलने में टीम अन्ना ने करोडो रुपये खर्च किये जो उससे जुड़े विभिन्न संगठनों को फोर्ड फाउन्डेशन जैसे कुख्यात दान दाताओं और अपनी शर्तों पर पैसा देने वाले यू.एन.डी.पी., डच दूतावास आदि से लेकर देशी पूंजीपतियों तक से प्राप्त हुए थे. कार्पोरेट मीडिया के चरित्र और उसकी भूमिका पर काफी कुछ पहले ही कहा जा चुका है इसलिए उसकी यहाँ चर्चा करना अनावश्यक है. सरकार इन सब बातों से अनजान बनी रही और उसकी ओर से की जा रही हास्यास्पद गलतियां चरम पर तब पहुंची जब १६ अगस्त को अनशन से ठीक पहले अन्ना को गिरफ्तार करने से लेकर रिहा करने, उन्हें जेल में ही अनशन करने कि छूट देने, आनन फानन में उनके लिए रामलीला मैदान तैयार करवाने आदि घटनाओं से भरा हुआ प्रहसन खेला गया. यह अन्ना को मसीहा बनाने के यज्ञ में दी गयी पूर्णाहुति थी.

अन्ना को मसीहा बनाने की इस प्रक्रिया में राजनीतिज्ञों समेत पूरी राजनैतिक व्यवस्था की जम कर बखिया उधेडी गयी. शहरी मध्य वर्ग जिसे काफी लम्बे अरसे से राजनीति से घृणा करना सिखाया जा रहा है और जो आम तौर पर राजनीति से विमुख हो भी चुका है, पूरी की पूरी राजनीति को गरियाने वालों से अपने को ख़ास तौर पर संपृक्त पाता है. यह स्थिति मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था के हिमायतियों के लिए भी अनुकूल है और उन राजनैतिक दलों व नेताओं के लिए भी जो यथास्थितिवाद में अपनी सत्ता को सुरक्षित पाते हैं. बुरे, कम बुरे और अच्छे का भेद किये बिना अगर पूरी व्यवस्था को ही गाली दी जाय तो जाहिरा तौर पर अवाम के सामने विकल्पहीनता की स्थिति होगी. ऐसी स्थिति में यदि लोगों में परिवर्तन की भावना ज्यादा ही जोर मारे तो पूरी प्रणाली को ज्यादातर मामलों में एक दूसरे का प्रतिबिम्ब बन चुकी दो सबसे बड़ी पार्टियों के बीच सत्ता की अदला बदली में सीमित किया जा सकता है. दोनों बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ अर्थनीति, विदेश नीति से लेकर अधिकांश मुद्दों पर एक ही रास्ते पर चल निकली हैं. यह कुछ कुछ अमरीकी प्रणाली जैसा होगा जहाँ सत्ता बदल जाने पर भी देश और दुनिया पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता. फिर भी यह अराजनैतिक राजनीति का महज़ एक पहलू है. इसका दूसरा पहलू इस से भी ज्यादा खतरनाक है. सारी राजनीति के प्रति दुराग्रह को इस स्तर तक परवान चढ़ा देने, और व्यक्ति/मूर्ति पूजक भावनाओं को हवा देकर सारी जनतांत्रिक संस्थाओं व संगठनों को एक मसीहा से प्रतिस्थापित कर देने की एक परिणति पूरी की पूरी संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था को उखाड़ कर उसकी जगह एक भली घोषणाएं करने वाले और सदिच्छा प्रदर्शित करने वाले तानाशाह को बैठा देने में भी हो सकती है.

अन्ना को मसीहा बना देने के इस जन्मेजयी यज्ञ में उनके पुराने साथिओं और उनके व्यक्तित्व के अनेकों पक्षों को बिलकुल दाब-ढक दिया गया. अन्ना ने ट्रस्ट बनाए पर कभी कोई लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित संगठन नहीं बनाया. हर आन्दोलन के उनके सहयोगी अगले आन्दोलन में बदलते रहे..उनके पास अन्ना के बारे में कहने के लिए बहुत कुछ है पर उनकी आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज़ साबित हुयीं. उनके सेना में भर्ती होने, 65 की लड़ाई में बहादुरी के साथ बच कर निकल आने,वहां से अपने गाँव पहुँच जाने, पेंसन के लिए फिर से सेना में लौट जाने और सेवा-निवृत्त होने की तारीखों वगैरह के मुद्दे इस वक़्त उठाना नीचता ही होगी और उन्हें उचित ही दबा दिया गया. पर अन्ना की सोच, भ्रष्टाचार सहित बाकी मुद्दों पर उनके सरोकार और समझदारी, ग्राम सुधार सम्बन्धी उनके कार्यक्रम भी इस दौरान यदा कदा सामने आये हैं. उन्होंने गुजरात और बिहार सरकारों की अपनी तारीफ़ को तो भारी आलोचना के बाद वापस ले लिया पर मुंबई में उत्तर भारतीयों की दादागिरी को रोकने के राज ठाकरे के अभियान के अपने समर्थन पर वे अब भी कायम हैं. बाल ठाकरे ने उनके लिए जो आत्मीयता प्रदर्शित की है उसमे गलत ही क्या है? लालू जी के जवाब में सीनिअर ठाकरे साहब ने यही तो फरमाया है कि महाराष्ट्र के जनसेवक चारा नहीं खाते इसीलिए 12 दिन भूखा रहने के बाद भी उनके चेहरे देदीप्यमान रहते हैं. 27 अगस्त को सरकार से सम्मान जनक समझौता हासिल करने के लिए छः माह से उनके साथ लगी टीम को किनारे कर मराठी मानुष-मानुषी के अचानक प्रकट होने पर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया? रातों रात केजरीवाल और किरण बेदी के अविश्वसनीय हो जाने और भय्यू जी व मेधा पाटकर के प्रकट होने की अंतर्कथा क्या सिर्फ इतनी ही है कि कट्टर पंथियों को वार्ता से हटाकर उदारवादियों को इस काम में लगाया जाय?

बिना किसी बाहरी इमदाद के आत्मनिर्भर बन गए उनके गाँव के बारे में कई अध्ययन हो चुके हैं. यह भी सामने आ चुका है कि देशी-विदेशी टीमों के सामने शो-केशिंग के लिए 80 के दशक में राले गणसिद्धि को आस पास के गावों का फंड भी दिया जाता रहा. उनके गाँव को देशी-विदेशी दान दाताओं से करोडो की मदद मिली है. फिर भी अन्ना जब ये कहते हैं कि उनका गाँव बिना किसी बाहरी मदद के आत्मनिर्भर हो गया है तो हमें मानना पड़ता है. हमें ऐसी परेशान करने वाली जानकारियों को भी भुला देना पड़ता है कि अन्ना की आत्मनिर्भर गाँव की परिकल्पना में विभिन्न जातियों के लोग अपना अपना परंपरागत काम और पूर्व निर्धारित भूमिकाओं का निर्वहन करेंगे. डंडे के जोर पर अपने गाँव में शराब और धूम्रपान बंदी के लिए किये गए उनके प्रयासों को उन्मुक्त प्रशंसा के भाव से लेना भी हमारी मजबूरी है. अपने पड़ोस में कपास के किसानो की आत्महत्याओं से वे अगर कभी विचलित नहीं होते तो न हों. अन्ना को अगर विरोध और खुद पर लगा कोई भी आरोप बर्दाश्त नहीं है तो हमें भी यह स्वीकार करना पड़ेगा. और वे खुद किसी पर कोई आरोप लगायें तो उनके इस लोकतान्त्रिक अधिकार पर किसी को कोई शक का अधिकार नहीं है,आखिर अन्ना इंडिया हैं. भगवान् और मसीहा शंकाओं-आशंकाओं, प्रश्नों-जिज्ञासाओं से परे होते हैं.. और गढ़े गए मसीहा वास्तविक से कहीं ज्यादा. वे मनुष्य होते ही नहीं इसलिए उनका आकलन साधारण मानवों की अच्छाइयों-बुराइयों को जांचने की कसौटी से हो ही नहीं सकता.

जनतंत्र का यदि इस समूची प्रक्रिया से कोई सम्बन्ध न होता तो उनको मसीहा बनाये जाने के अभियान को निस्पृह भाव से लिया जा सकता था. लेकिन दुर्भाग्य से मसीहावाद अपने मूल चरित्र में ही लोकतंत्र का दुश्मन है. वह जन भागीदारी पर आधारित व्यवस्था के स्थान पर मसीहा को ही रामबाण के रूप में प्रस्तुत करता है. मसीहा दाता है, कर्ता है, भर्ता है जबकि उसके अनुयायी,उसकी प्रजा उस पर आश्रित निष्क्रिय वस्तुएं. वह समस्याओं का हल बिलकुल एंग्री यंग मैन के दिनों में बनी फिल्मों के नायक के अंदाज़ में अकेले दम पर सारे आतताइयों का खात्मा करके करता है जिनमे केवल अच्छे और बुरे लोग होते हैं, अच्छाइयां-बुराइयां नहीं. मसीहा कहता है सड़क पर उतरो, अनुयायी उतर जाते हैं. मसीहा कहता है संसद घेर लो,अनुयायी घेर लेते हैं. वह टोपी पहनाता है, अनुयायी पहन लेते हैं. मसीहा सांप्रदायिक एकता बढ़ा सकता है. जैसे उसने अपने गाँव में जातीय एकता कायम रखी है. जैसे देवबंद के पूर्व कुलपति ने बढ़ाने की कोशिश की थी. जैसे धर्म प्राण पार्टियों के विधर्मी प्रवक्ता गण कर रहें हैं. नाम गिनाने से क्या फायदा? सब जानते हैं. वह भेड़िये और मेमने को एक घाट पर पानी पिला सकता है. और तुर्रा यह कि दोनों में से कोई अपना स्वभाव नहीं छोड़ेगा. कुछ दिनों -महीनों तक मसीहा के निर्देशों पर चलना है बस. सारी दिक्कतें दूर करने का नुस्खा उसके पास है ही. उसमे भभूत, रुद्राक्ष भी हो सकता है और प्रवचन-अनशन भी. वह कहता है कि उसका कोई स्वार्थ नहीं तो उसका कोई स्वार्थ नहीं. वह कहता है कि वह देश के लिए मसीहा बन रहा है तो वह बन रहा है. वह कहता है कि वह लोगों-अनुयाइयों के लिए भूखे रहकर प्राण त्याग सकता है तो वह ऐसा कर सकता है. उसे तर्क पसंद नहीं..महान आत्माएं तर्क नहीं करती. वे केवल उपदेश और ज्ञान बांटती हैं. वे अपने त्याग और उपलब्धियों के किस्से सुनाती हैं. फिर अनुयायी उन किस्सों को औरों को सुनाते हैं. वे थकती नहीं. उनमे आत्मबल होता है. तेज़ होता है. वे चारा नहीं खाती, न विटामिन और ग्लूकोज लेती हैं बल्कि वे अपने भक्तों से सीधे ऊर्जा प्राप्त कर लेती हैं..
.......जारी..

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