Tuesday, August 30, 2011

ठीक ही हम वहां नहीं थे : मकसद, मसीहा और जन का मिथक- II

अब जरा इस बात पर गौर फरमाते हैं कि एक छोटे से गाँव में कुछ सामाजिक सुधार जैसे काम करने वाले और महाराष्ट्र में छुटपुट आन्दोलन चलाने वाले अन्ना अचानक पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य पर कैसे छा गए. अप्रैल के महीने में अन्ना ने लोकपाल विधेयक की ड्राफ्टिंग में सिविल सोसाइटी को सम्मिलित किये जाने को लेकर दिल्ली में जंतर मंतर पर जब अनशन शुरू किया तब इस ड्राफ्ट को लेकर कई स्तरों पर काम चल रहा था. इनमे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् में सम्मिलित की गयीं अरुणा रॉय के प्रयास काफी अहम् थे. यह बात आम फहम है कि सूचना के अधिकार के लिए सर्वाधिक संघर्ष अरुणा रॉय ने ही अपने संगठन एम.के.एस.एस.के जरिये किया था और उन्ही के प्रयासों से राजस्थान में सूचना के अधिकार पर पहला अधिनियम राजस्थान में आया था. केन्द्रीय कानून की ड्राफ्टिंग में भी अरुणा रॉय का काफी योगदान रहा था. अगर सिविल सोसाइटी का मतलब गैर सरकारी स्वैच्छिक संगठनों से लगाया जाता है तो अरुणा रॉय भी सिविल सोसाइटी का ही एक हिस्सा हैं और टीम अन्ना के सदस्यों, केजरीवाल और किरण बेदी के सरकारी नौकरी छोड़ने से दो दशक से भी पहले भारतीय प्रशासनिक सेवा छोड़कर वह सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय हुयी थीं. फिर ऐसा क्या था कि अन्ना और उनकी टीम अरुणा रॉय पर भरोसा न कर मुद्दे को बीच में ही लपकने आ पहुंचे? इस बीच अन्ना की टीम ने जन लोकपाल नाम से एक ड्राफ्ट तैयार कर लिया था और उसके प्रचार प्रसार के लिए अर्ध सत्य पर आधारित अनेकों वीडिओ क्लिप्पिंग्स, लेख, वार्ताएं,पर्चे इत्यादि मीडिया और इन्टरनेट की दुनिया में उतार दिए थे.

बहरहाल सरकार ने अन्ना को हाथो हाथ लिया और काफी तेजी दिखाते हुए उसकी ओर से एक ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन कर दिया गया. हैरत की बात यह थी कि ड्राफ्टिंग कमेटी में गैर-सरकारी सदस्यों को सरकार के ठीक बराबर का दर्ज़ा दिया गया था. सवा अरब जनसँख्या वाले और लाखों गैर-सरकारी संगठनो वाले देश में सरकार को कमेटी में रखने के लिए वही गैर-सरकारी सदस्य मिले जिनका सुझाव अन्ना ने दिया. अन्ना की इस टीम की सदस्यों के ऊपर कई हलकों से सवालिया निशान भी लगाये गए. लेकिन अन्ना अपनी टीम पर अड़े रहे और सरकार तो पहले से ही मानने के लिए तैयार बैठी थी. यहीं से अन्ना ने सरकार और राज्य के समानान्तर एक प्रति-सत्ता का रूपाकार ग्रहण करना शुरू किया जिसे मास मीडिया के द्वारा थोड़े समय में ही गुब्बारे की तरह फुला कर इतना बड़ा कर दिया गया कि वह कुछ दिनों के लिए ही सही राजनैतिक आकाश को आच्छादित कर सके. यहाँ यह सवाल उठना लाजिमी है कि सरकार ने भूल वश अन्ना का कद इतना बड़ा कर दिया या इसमें किसी तरह की आपसी समझदारी काम कर रही थी?

अगर हम इसे सरकारी भूल मान लें तो यह भी मानना पड़ेगा कि सरकार के रणनीतिकार बड़े नौसिखिये थे और उन्होंने इसके बाद भी भूल पर भूल करना जारी रखा. अगले तीन महीनों में ड्राफ्टिंग कमेटी की 8 बैठकों के दौरान सरकार और टीम अन्ना के बीच तकरार चलती रही. टीम अन्ना ने इस दौरान सुनियोजित तरीके से सरकारी प्रस्तावों के खिलाफ प्रचार अभियान चलाया. लेकिन सरकार की ओर से मानव ससाधन विकास मंत्री के छुटपुट बयानों को छोड़कर न तो टीम अन्ना के घोर आपत्तिजनक प्रस्तावों का खुलासा किया गया और न ही अपने प्रस्तावों पर कोई सफाई दी गयी. अगर दोनों प्रारूपों की तुलनात्मक जानकारी के लिए कोई इन्टरनेट की दुनिया को खंगालना चाहे तो उसे 90 प्रतिशत मामलों में टीम अन्ना या इंडिया अगेंस्ट करप्शन द्वारा जारी की गयी प्रचार सामग्री के ही दर्शन होंगे. यहाँ तक कि सूचना के अधिकार पर चले आंदोलनों की पृष्ठभूमि की तलाश करने पर भी 75 प्रतिशत मामलों में अन्ना, केजरीवाल और किरण बेदी से जुड़े वृत्तान्त ही सामने आते हैं. इतने बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान चलने में टीम अन्ना ने करोडो रुपये खर्च किये जो उससे जुड़े विभिन्न संगठनों को फोर्ड फाउन्डेशन जैसे कुख्यात दान दाताओं और अपनी शर्तों पर पैसा देने वाले यू.एन.डी.पी., डच दूतावास आदि से लेकर देशी पूंजीपतियों तक से प्राप्त हुए थे. कार्पोरेट मीडिया के चरित्र और उसकी भूमिका पर काफी कुछ पहले ही कहा जा चुका है इसलिए उसकी यहाँ चर्चा करना अनावश्यक है. सरकार इन सब बातों से अनजान बनी रही और उसकी ओर से की जा रही हास्यास्पद गलतियां चरम पर तब पहुंची जब १६ अगस्त को अनशन से ठीक पहले अन्ना को गिरफ्तार करने से लेकर रिहा करने, उन्हें जेल में ही अनशन करने कि छूट देने, आनन फानन में उनके लिए रामलीला मैदान तैयार करवाने आदि घटनाओं से भरा हुआ प्रहसन खेला गया. यह अन्ना को मसीहा बनाने के यज्ञ में दी गयी पूर्णाहुति थी.

अन्ना को मसीहा बनाने की इस प्रक्रिया में राजनीतिज्ञों समेत पूरी राजनैतिक व्यवस्था की जम कर बखिया उधेडी गयी. शहरी मध्य वर्ग जिसे काफी लम्बे अरसे से राजनीति से घृणा करना सिखाया जा रहा है और जो आम तौर पर राजनीति से विमुख हो भी चुका है, पूरी की पूरी राजनीति को गरियाने वालों से अपने को ख़ास तौर पर संपृक्त पाता है. यह स्थिति मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था के हिमायतियों के लिए भी अनुकूल है और उन राजनैतिक दलों व नेताओं के लिए भी जो यथास्थितिवाद में अपनी सत्ता को सुरक्षित पाते हैं. बुरे, कम बुरे और अच्छे का भेद किये बिना अगर पूरी व्यवस्था को ही गाली दी जाय तो जाहिरा तौर पर अवाम के सामने विकल्पहीनता की स्थिति होगी. ऐसी स्थिति में यदि लोगों में परिवर्तन की भावना ज्यादा ही जोर मारे तो पूरी प्रणाली को ज्यादातर मामलों में एक दूसरे का प्रतिबिम्ब बन चुकी दो सबसे बड़ी पार्टियों के बीच सत्ता की अदला बदली में सीमित किया जा सकता है. दोनों बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ अर्थनीति, विदेश नीति से लेकर अधिकांश मुद्दों पर एक ही रास्ते पर चल निकली हैं. यह कुछ कुछ अमरीकी प्रणाली जैसा होगा जहाँ सत्ता बदल जाने पर भी देश और दुनिया पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता. फिर भी यह अराजनैतिक राजनीति का महज़ एक पहलू है. इसका दूसरा पहलू इस से भी ज्यादा खतरनाक है. सारी राजनीति के प्रति दुराग्रह को इस स्तर तक परवान चढ़ा देने, और व्यक्ति/मूर्ति पूजक भावनाओं को हवा देकर सारी जनतांत्रिक संस्थाओं व संगठनों को एक मसीहा से प्रतिस्थापित कर देने की एक परिणति पूरी की पूरी संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था को उखाड़ कर उसकी जगह एक भली घोषणाएं करने वाले और सदिच्छा प्रदर्शित करने वाले तानाशाह को बैठा देने में भी हो सकती है.

अन्ना को मसीहा बना देने के इस जन्मेजयी यज्ञ में उनके पुराने साथिओं और उनके व्यक्तित्व के अनेकों पक्षों को बिलकुल दाब-ढक दिया गया. अन्ना ने ट्रस्ट बनाए पर कभी कोई लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित संगठन नहीं बनाया. हर आन्दोलन के उनके सहयोगी अगले आन्दोलन में बदलते रहे..उनके पास अन्ना के बारे में कहने के लिए बहुत कुछ है पर उनकी आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज़ साबित हुयीं. उनके सेना में भर्ती होने, 65 की लड़ाई में बहादुरी के साथ बच कर निकल आने,वहां से अपने गाँव पहुँच जाने, पेंसन के लिए फिर से सेना में लौट जाने और सेवा-निवृत्त होने की तारीखों वगैरह के मुद्दे इस वक़्त उठाना नीचता ही होगी और उन्हें उचित ही दबा दिया गया. पर अन्ना की सोच, भ्रष्टाचार सहित बाकी मुद्दों पर उनके सरोकार और समझदारी, ग्राम सुधार सम्बन्धी उनके कार्यक्रम भी इस दौरान यदा कदा सामने आये हैं. उन्होंने गुजरात और बिहार सरकारों की अपनी तारीफ़ को तो भारी आलोचना के बाद वापस ले लिया पर मुंबई में उत्तर भारतीयों की दादागिरी को रोकने के राज ठाकरे के अभियान के अपने समर्थन पर वे अब भी कायम हैं. बाल ठाकरे ने उनके लिए जो आत्मीयता प्रदर्शित की है उसमे गलत ही क्या है? लालू जी के जवाब में सीनिअर ठाकरे साहब ने यही तो फरमाया है कि महाराष्ट्र के जनसेवक चारा नहीं खाते इसीलिए 12 दिन भूखा रहने के बाद भी उनके चेहरे देदीप्यमान रहते हैं. 27 अगस्त को सरकार से सम्मान जनक समझौता हासिल करने के लिए छः माह से उनके साथ लगी टीम को किनारे कर मराठी मानुष-मानुषी के अचानक प्रकट होने पर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया? रातों रात केजरीवाल और किरण बेदी के अविश्वसनीय हो जाने और भय्यू जी व मेधा पाटकर के प्रकट होने की अंतर्कथा क्या सिर्फ इतनी ही है कि कट्टर पंथियों को वार्ता से हटाकर उदारवादियों को इस काम में लगाया जाय?

बिना किसी बाहरी इमदाद के आत्मनिर्भर बन गए उनके गाँव के बारे में कई अध्ययन हो चुके हैं. यह भी सामने आ चुका है कि देशी-विदेशी टीमों के सामने शो-केशिंग के लिए 80 के दशक में राले गणसिद्धि को आस पास के गावों का फंड भी दिया जाता रहा. उनके गाँव को देशी-विदेशी दान दाताओं से करोडो की मदद मिली है. फिर भी अन्ना जब ये कहते हैं कि उनका गाँव बिना किसी बाहरी मदद के आत्मनिर्भर हो गया है तो हमें मानना पड़ता है. हमें ऐसी परेशान करने वाली जानकारियों को भी भुला देना पड़ता है कि अन्ना की आत्मनिर्भर गाँव की परिकल्पना में विभिन्न जातियों के लोग अपना अपना परंपरागत काम और पूर्व निर्धारित भूमिकाओं का निर्वहन करेंगे. डंडे के जोर पर अपने गाँव में शराब और धूम्रपान बंदी के लिए किये गए उनके प्रयासों को उन्मुक्त प्रशंसा के भाव से लेना भी हमारी मजबूरी है. अपने पड़ोस में कपास के किसानो की आत्महत्याओं से वे अगर कभी विचलित नहीं होते तो न हों. अन्ना को अगर विरोध और खुद पर लगा कोई भी आरोप बर्दाश्त नहीं है तो हमें भी यह स्वीकार करना पड़ेगा. और वे खुद किसी पर कोई आरोप लगायें तो उनके इस लोकतान्त्रिक अधिकार पर किसी को कोई शक का अधिकार नहीं है,आखिर अन्ना इंडिया हैं. भगवान् और मसीहा शंकाओं-आशंकाओं, प्रश्नों-जिज्ञासाओं से परे होते हैं.. और गढ़े गए मसीहा वास्तविक से कहीं ज्यादा. वे मनुष्य होते ही नहीं इसलिए उनका आकलन साधारण मानवों की अच्छाइयों-बुराइयों को जांचने की कसौटी से हो ही नहीं सकता.

जनतंत्र का यदि इस समूची प्रक्रिया से कोई सम्बन्ध न होता तो उनको मसीहा बनाये जाने के अभियान को निस्पृह भाव से लिया जा सकता था. लेकिन दुर्भाग्य से मसीहावाद अपने मूल चरित्र में ही लोकतंत्र का दुश्मन है. वह जन भागीदारी पर आधारित व्यवस्था के स्थान पर मसीहा को ही रामबाण के रूप में प्रस्तुत करता है. मसीहा दाता है, कर्ता है, भर्ता है जबकि उसके अनुयायी,उसकी प्रजा उस पर आश्रित निष्क्रिय वस्तुएं. वह समस्याओं का हल बिलकुल एंग्री यंग मैन के दिनों में बनी फिल्मों के नायक के अंदाज़ में अकेले दम पर सारे आतताइयों का खात्मा करके करता है जिनमे केवल अच्छे और बुरे लोग होते हैं, अच्छाइयां-बुराइयां नहीं. मसीहा कहता है सड़क पर उतरो, अनुयायी उतर जाते हैं. मसीहा कहता है संसद घेर लो,अनुयायी घेर लेते हैं. वह टोपी पहनाता है, अनुयायी पहन लेते हैं. मसीहा सांप्रदायिक एकता बढ़ा सकता है. जैसे उसने अपने गाँव में जातीय एकता कायम रखी है. जैसे देवबंद के पूर्व कुलपति ने बढ़ाने की कोशिश की थी. जैसे धर्म प्राण पार्टियों के विधर्मी प्रवक्ता गण कर रहें हैं. नाम गिनाने से क्या फायदा? सब जानते हैं. वह भेड़िये और मेमने को एक घाट पर पानी पिला सकता है. और तुर्रा यह कि दोनों में से कोई अपना स्वभाव नहीं छोड़ेगा. कुछ दिनों -महीनों तक मसीहा के निर्देशों पर चलना है बस. सारी दिक्कतें दूर करने का नुस्खा उसके पास है ही. उसमे भभूत, रुद्राक्ष भी हो सकता है और प्रवचन-अनशन भी. वह कहता है कि उसका कोई स्वार्थ नहीं तो उसका कोई स्वार्थ नहीं. वह कहता है कि वह देश के लिए मसीहा बन रहा है तो वह बन रहा है. वह कहता है कि वह लोगों-अनुयाइयों के लिए भूखे रहकर प्राण त्याग सकता है तो वह ऐसा कर सकता है. उसे तर्क पसंद नहीं..महान आत्माएं तर्क नहीं करती. वे केवल उपदेश और ज्ञान बांटती हैं. वे अपने त्याग और उपलब्धियों के किस्से सुनाती हैं. फिर अनुयायी उन किस्सों को औरों को सुनाते हैं. वे थकती नहीं. उनमे आत्मबल होता है. तेज़ होता है. वे चारा नहीं खाती, न विटामिन और ग्लूकोज लेती हैं बल्कि वे अपने भक्तों से सीधे ऊर्जा प्राप्त कर लेती हैं..
.......जारी..

ठीक ही हम वहां नहीं थे:मकसद, मसीहा और जन का मिथक- I

मेरे कई मित्रों और परिचितों के सन्देश इस बीच मुझे मिले हैं जो इस बात से असहज महसूस कर रहें हैं कि मैंने और मेरे जैसे कई लोगों ने न केवल अन्ना हजारे के आन्दोलन से दूरी बनाये रखी, उसका समर्थन नहीं किया बल्कि उसका वैचारिक स्तर पर विरोध भी किया..1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद आरक्षण विरोधी आन्दोलन के दिनों में भी हमारे आरक्षण का समर्थन करने पर ढेरों मित्र हैरान होते थे और उनमे से अनेकों तो हमारे दुश्मन बन गए थे.. उन्हें इस बात से भारी परेशानी होती थी कि एक ऐसा छोटा सा समूह जिनमे अधिकांश आरक्षित श्रेणियों में नही आते, आरक्षण के पक्ष में दलीलें कैसे दे सकता है.. हमारे असहज मित्रों की दृष्टि में अन्ना के आन्दोलन के कई मायने हैं.. अन्ना का आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है और उनके सुझाये जन लोकपाल से भ्रष्टाचार पूरी तरह ख़तम न भी हुआ तो जैसा अन्ना का कहना है कि इस से भ्रष्टाचार में 90% कमी आ जाएगी.. कई दूसरे मित्र जिन्हें इस बात में संशय है वे मानते हैं कि यह सरकार और संसद की संप्रभुता के बर-अक्स लोक की, जन की संप्रभुता की पुनर्स्थापना का उत्सव है.. दूसरे शब्दों में यह नीति निर्धारण और विधायन की प्रक्रिया में जन भावनाओं को सम्मिलित किये जाने की आकांक्षा का प्रस्फुटन है.. कई लोग इसे लोगों द्वारा उठाई गयी जनप्रतिनिधियों से जनता के प्रति जवाबदेही की मांग के रूप में ले रहे हैं.. पर इनके अलावा बड़ी तादात में ऐसे लोग हैं जो पिछले 6-8 माह में सावधानी पूर्वक गढ़े गए अन्ना के आभामंडल और एक के बाद एक सामने आये घोटालों के सम्मिलित प्रभाव में इस परिघटना को सर्वकालिक निदान के रूप में ले रहें हैं.. इन्ही मिली जुली भावनाओं के साथ अन्ना हजारे के आन्दोलन की तुलना स्वाधीनता संघर्ष से करते हुए कुछ अति उत्साही महानुभावों ने इसे आजादी की दूसरी लडाई ही घोषित कर दिया है और कुछ अन्य इसे तहरीर स्क्वायर का भारतीय संस्करण मान रहे हैं..



अन्ना के आन्दोलन का घोषित लक्ष्य भ्रष्टाचार की समाप्ति है.. यह लक्ष्य कुछ उसी तरह अस्पष्ट और सामान्य है जैसे चोरी को समाप्त करने का लक्ष्य या कभी झूठ न बोलने का लक्ष्य..और इसी गुण की वजह से इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता.. अगर घोषणाओं को ही मंशा का प्रतिबिम्ब मान लिया जाय तो राजनेताओं और नौकरशाही समेत कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध न हो..जाहिर है कि घोषित लक्ष्य की गंभीरता की पड़ताल के लिए लक्ष्य प्राप्ति हेतु सुझाये गए तंत्र की संभाव्यता और लक्ष्य से उसकी तार्किक सम्बद्धता की छानबीन करनी होगी.. ठीक इसी बिंदु पर टीम अन्ना द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल ड्राफ्ट पर चर्चा ज़रूरी हो जाती है जिस पर अब तक बहुत कुछ कहा सुना जा चुका है.. इनमे सबसे पहले शुरूआती ड्राफ्ट में लोकपाल हेतु प्रस्तावित सेलेक्सन कमिटी पर विचार किया जाना चाहिए जिसमें अब यद्यपि टीम अन्ना द्वारा सुधार कर लिया गया है फिर भी यह प्रस्ताव उनकी छिपी आकांक्षाओं पर थोड़ा बहुत प्रकाश डाल सकता है.. शुरूआती प्रस्ताव के अनुसार जहाँ इस कमिटी में मात्र एक चुना हुआ प्रतिनिधि रखा जाना था वहीँ नोबेल और मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त लोगों की संख्या चार होनी थी.. इसी तरह उच्चतम न्यायालय सहित पूरी न्यायपालिका को लोकपाल के क्षेत्राधिकार में लाने का मामला था.. चूंकि ये अब प्रस्ताव में से हटा लिया गए हैं सो संदेह का लाभ देते हुए माना जा सकता है कि ये प्रावधान टीम अन्ना ने मोल भाव के लिए ही रखे थे..



लेकिन उन तीन प्रावधानों पर संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है जिन्हें अन्ना ने आखिर तक नहीं छोड़ा और जिन पर ढीला ढाला ही सही एक प्रस्ताव संसद द्वारा पास किये जाने के बाद ही उन्होंने अनशन तोडा..इनमे सबसे महत्वपूर्ण निचले स्तर तक की नौकरशाही को लोकपाल के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत लाने का मामला है.. प्रथम श्रेणी के अधिकारियों समेत सारे जनप्रतिनिधियों और राजनैतिक कार्यपालकों को लोकपाल के दायरे में लाने से शायद ही किसी को ऐतराज हो और कमोबेश सभी प्रस्तावों में उन्हें लोकपाल के दायरे में रखा भी गया था..इनकी संख्या 60,000 के आसपास है..पर जैसे ही निचले स्तर के कर्मचारियों को इनमे शामिल किया जाता है यह संख्या 2.5 करोड़ के आस पास पहुँच जाती है..एक आकलन के अनुसार इन पर नियंत्रण रखने के लिए 50,000 से अधिक कार्मिकों की एक नौकरशाही लोकपाल के अधीन बनानी पड़ेगी.. अगर प्रस्तावित लोकपाल की चयन समिति 9 या 11 सदस्यों वाला एक बेदाग़, सत्ता-धन किसी भी लालसा से मुक्त और सन्यासत्व के भाव से युक्त एक अलौकिक लोकपाल चुनने में सफल भी हो जाय तो भी इस भारी भरकम नौकरशाही को ईमानदार बनाने का उसके पास क्या नुस्खा होगा??लोकपाल के इन्स्पेक्टर्स, विवेचक, अभियोक्ता , सम्प्रेक्षक, लिपिक, अफसर, कर्मचारी बनाने के लिए फ़रिश्ते कहाँ से लाये जायेंगे? एक क्षण के लिए मान लें कि अलौकिक लोकपाल अपनी नौकरशाही पर ऐसा नियंत्रण स्थापित कर लेगा जिससे उनमे किसी को भ्रष्ट होने की हिम्मत नहीं पड़ेगी..पर यही तर्क बाकी नौकरशाही पर भी लागू करें तो प्रथम श्रेणी के अफसरों को ईमानदार बना लेने से ही पूरे सरकारी तंत्र पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकेगा.. सुनते हैं कि सत्ता भ्रष्ट करती है और परम सत्ता परम भ्रष्ट.. इस लिहाज़ से नगण्य जवाबदेही और अत्यधिक सत्ता संपन्न लोकपाल परम भ्रष्टाचार का रास्ता ही खोलेगा..



दूसरा मुद्दा केंद्र से लेकर राज्य तक को लोकपाल के अधीन लाने को लेकर था जिसे सुधार कर अब एक ही कानून के जरिये केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त की बात की जा रही है...इस तरह की व्यवस्था के उदाहरण चुनाव आयोग और सी. ए. जी. के संगठन में ढूंढें जा सकते हैं.. पर ये दोनों संगठन संवैधानिक प्रावधानों में निहित व्यवस्था की देन हैं और राज्य का कोई स्वतंत्र पाया न होकर विधायिका के प्रति जवाबदेह हैं..टीम अन्ना की कल्पना का लोकपाल विधायिका के प्रति जवाबदेह तो कतई नहीं होने वाला है..न्यायपालिका की संवैधानिक स्थिति से लोकपाल की तुलना ही नहीं है और अन्ना की सिविल सोसायटी जिस तरह से न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार से चिंतित दिखती है वैसे में उसे इस बात का ज़रा भी इल्हाम नहीं होता कि उनका लोकपाल उससे भी ज्यादा भ्रष्ट हो सकता है..अन्ना विकेंद्रीकरण और ग्राम स्वराज की बात करते हैं परन्तु उनकी टीम को यह सुझाव देते समय बिलकुल याद नहीं रहता की संघीय ढाँचे के अंतर्गत राज्यों को भी थोड़ी ही सही, एक स्वायत्तता हासिल है जिसे उनका प्रस्ताव एक केंद्रीकृत नौकरशाही के जरिये कम ही करेगा..कल्पना करें कि अन्ना के आदर्श गाँव के चुने हुए मुखिया को लोकपाल की नौकरशाही का जिले या ब्लाक स्तर का एक अदना सा मुलाजिम जूते की नोक पर रखे..तो क्या हम यह मान लें की गाँव की बातें और विकेंद्रीकरण का जाप महज़ एक दिखावा है..तीसरा मुद्दा शिकायतों के निराकरण से जुड़ा है जिसके लिए अलग से केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर व्यवस्था करने की ज़रुरत है..उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री ने दो दिन पहले याद दिलाया था कि उनके प्रदेश में नागरिक चार्टर की व्यवस्था पहले से लागू है.. अब उस व्यवस्था का परिणाम भी लोगों के सामने है..जाहिर है कि उसमे सुधार की भारी ज़रुरत है लेकिन इस बहाने से राज्यों और उनके साथ साथ पंचायतों की नाम के लिए मिली हुयी स्वायत्तता को छीन लेने का उपक्रम इतना अबोध भी नहीं हो सकता..



क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि अन्ना और उनकी टीम को इन बातों का ज़रा भी अहसास नहीं है और भ्रष्टाचार समाप्त करने की अपनी सदिच्छा से प्रेरित होकर पिछले कई महीनों से वे बालहठ का प्रदर्शन करते चले आ रहे हैं?? अन्ना को संदेह का लाभ दिया जा सकता है लेकिन उनकी टीम के अति विद्वान सदस्यों के बारे में भी क्या ऐसी धारणा बनायीं जा सकती है?? यहीं हमारे सामने यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है.. टीम अन्ना इतनी भोली नहीं हो सकती कि उसे इस बात में ज़रा भी शंका न हो कि जिस ढांचे को स्थापित करने के लिए वे इतनी हाय तौबा मचा रहे हैं उसका परिणाम उल्टा भी आ सकता है.. फिर इस आन्दोलन के पीछे क्या पवित्र मकसद हो सकता है?? इस बात की जानकारी हासिल करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है और इसके लिए हमें इस आन्दोलन की संचालक शक्तियों, इसमें शामिल तत्वों और इसके संभावित लाभार्थियों के चरित्र और उनके अपने हितों-कामनाओं की पड़ताल करनी पड़ेगी..



यह आम जानकारी है कि बीस साल पहले आर्थिक सुधारों के नाम पर उदारीकरण और बाजारवाद की जो मुहिम चलाई गयी थी उसके सूत्रधार हमारे वर्तमान प्रधान मंत्री ही थे..राज्य की भूमिका को कम करते हुए बाज़ार और निजी क्षेत्र का फैलाव उसका मुख्य लक्षण है..बाज़ार की प्रतिस्पर्धी दक्षता की लाख तारीफ की जाय पर उसमे और जंगल में मामूली फर्क ही होता है..जंगल में अगर ताकत ही सच्चाई है, जिसकी लाठी उसकी भैंस ही अंतिम सत्य है तो बाज़ार में धन ही असली शक्ति है..लेकिन सार्वभौमिक मताधिकार पर आधारित एक लोकतान्त्रिक राज्य दिखावे के लिए ही सही अपने नागरिकों के साथ बराबरी का बर्ताव करने के लिए बाध्य होता है..और अगर यह राज्य पक्षधरता को अपनी नीति बनाता है तो उसे आर्थिक-सामाजिक रूप से दुर्बल का ही पक्ष लेना पड़ता है..इसमें लाख खामियां हो सकती हैं..कोई एस्कॉर्ट्स या मेदान्ता जैसा निजी अस्पताल कितना भी दक्ष और अच्छा क्यों न हो, वह घटिया से घटिया और भ्रष्ट से भ्रष्ट सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के फर्श पर बैठ कर अपनी बारी का इन्तजार कर रहे मरीज के लिए किसी काम का नहीं..



और ठीक यही तथ्य राज्य की भूमिका को सिकोड़ने की प्रभु वर्गीय कोशिशों के लिए एक मुसीबत बनकर खड़ा हो जाता है..आर्थिक शब्दावलियाँ कुछ भी हो सकती हैं..चाहे राजकोषीय घाटे को कम करने की वकालत की जाय, सब्सिडी के बढ़ते बोझ का रोना रोया जाय, बाज़ार में तरलता के प्रवाह को कम करने के लिए सरकारी खर्चों में कटौती की बात की जाय या भुगतान असंतुलन को दूर करने के लिए निर्यातोन्मुख ज़ोन बनाने का तर्क गढ़ा जाय, सारी बातें राज्य की भूमिका को कमतर करते जाने और बाज़ार के सर्वग्रासी बन जाने की ही तरफदार हैं..पर जब लोकतान्त्रिक राज्य अपने नागरिकों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया करने की अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से कदम खींचेगा तो जनता के बहुसंख्यक हिस्सों के गुस्से का खामियाजा उसे भुगतना ही पड़ेगा..राज्य द्वारा छोड़ी गयी जिम्मेदारियों को पूरा करने का दिखावा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोषों और दानदाताओं का नुस्खा गैर-सरकारी संगठनों को उस खाली जगह में फिट कर देने का है..मुनाफे वाली जमीन के लिए तो कार्पोरेसंस पहले से ही तैयार बैठे हैं.. जरा गौर कीजिये, करोड़ों बच्चों को प्राथमिक स्कूल और अध्यापक उपलब्ध करने की बजाय विश्व बैंक के पैसे से सर्व सिक्षा अभियान चलाया जाता है..गरीब गुरबे फ़िक्र न करें, सरकार नहीं तो एन. जी. ओ. तो हैं ही सारी दिक्कतों को दूर करने के लिए..



उदारीकरण हो सके इसके लिए ज़रूरी है कि सरकार पर्याप्त रूप से बदनाम हो जाय..पिछले बीस सालों में सरकारी उपक्रमों-विभागों को एक एक कर बदनाम किया गया..बी एस एन एल पिछड़ रहा है तो इसलिए नहीं कि वह अक्षम है..उसके लिए उपकरण खरीदने से लेकर 3जी सेवाएँ शुरू करने तक जो खेल खेला गया, अब बहुतों की जानकारी में है..फिर भी मोबाइल सेवा आज इस देश में इतनी सस्ती है तो उसका श्रेय इसी उपक्रम को जाता है.. सरकारी उपक्रमों को बदनाम करने के दौर से अब देश आगे आ गया है..अब पूरे राज्य को ही बदनाम कर दिया जाय..उसका रास्ता राजनीतिज्ञों और उनके बाद सरकार फिर संसद को बदनाम करने से निकलता है..इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे राजनेताओं में से बहुतायत ने खुद ही इसका इंतजाम कर दिया है.. बाजारवादी कट्टरपंथियों और सिविल सोसाइटी के नाम पर इकठ्ठा हुए बिचौलियों के लिए इससे बढ़िया मौका और क्या हो सकता है..आखिर सरकार और राज्य एक मजबूरी है जिसके गठन में सैधांतिक तौर पर ही सही हर आदमी की बराबर की भागीदारी है..कम्पनियाँ, निगम और शेयर बाज़ार तो शेयर (धन) के आधार पर चलते हैं..कितना अच्छा होता कि अर्थशास्त्र राजनीति पर भारी रहता..कितना अच्छा है कि ऐसा होता दिख रहा है..



जरा अन्ना की सिविल सोसाइटी की भ्रष्टाचार कि परिभाषा पर गौर फरमाइए.. यह परिभाषा वही है जैसी कि भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में दी गयी है..इसमें केवल जनप्रतिनिधि और सरकारी मुलाजिम आते हैं.. इसके तहत न तो कार्पोरेट्स आते हैं न ही एन.जी.ओ., मीडिया, और हर्षद मेहता,तेलगी जैसे दलाल.. वाहियात सरकारी ड्राफ्ट में इनमे से कुछ को भी लोकपाल के दायरे में लाने की हिमायत की गयी थी पर टीम अन्ना उस पर बिफर गयी..इन्हें भ्रष्टाचार की परिभाषा से बाहर रखने का क्या तर्क हो सकता है?? लोकपाल का दायरा ज्यादा बढ़ा देने से वह प्रभावहीन हो जाएगा..पर निचले दर्जे के कर्मचारियों को उसके दायरे में लाने से वह प्रभावहीन नहीं होगा??एक तबके की ऐसी मासूम समझ भी है कि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार रुक जाने से निजी क्षेत्र, मीडिया आदि में स्वतः उस पर अंकुश लग जाएगा.. वे नीति निर्धारण और नियमन को आपस में गड्ड-मड्ड कर दे रहे हैं..उन्हें इस बात का बिलकुल अंदाज़ नहीं है कि यदि कल मीडिया में विदेशी निवेश की सीमा को बढाकर इस क्षेत्र में पूर्ण विदेशी स्वामित्व स्थापित कर दिया जाता है तो बिना किसी किस्म के भ्रष्टाचार के ऊपर बैठे एक छोटे से तबके को छोड़कर खुद को मीडिया का पक्का मुलाजिम समझने वाले कितने ही कलम और कैमरे के सिपाही कुछ ज्यादा दिहाड़ी वाले स्ट्रिंगर्स में तब्दील हो जायेंगे.. ऐसे में मीडिया को अपने कंधो पर ढोने वाले उन मौजूदा स्ट्रिंगर्स के सपनो की बात करना भी बेमानी है जो एक दिन पक्के पत्रकार-उपसंपादक बन जाने की आस में एक अकुशल श्रमिक से भी कम भुगतान पर अपना खून पसीना एक किये रहते हैं.. या बिना किसी भ्रष्टाचार के भी अगर खुदरा क्षेत्र में भारी भरकम विदेशी निगमों को न्योता देने की नीति परवान चढ़ गयी तो छोटे बड़े करोड़ों खुदरा व्यापारियों की स्थायी बदहाली का रास्ता खुल कर ही रहेगा.. मेधा पाटकर और निवेदिता मेनन को इनके उद्देश्य पवित्र दिखते हों तो दिखें, मेरी छोटी बुद्धि को नहीं दिखते.. उम्मीद है कि वे मुझे माफ़ करेंगी..उम्मीद है कि टीम अन्ना के सदस्य भी मुझे माफ़ करेंगे कि मेरे जैसे बहुत से लोग अभी भी सरकार के चाकर हैं और वे सरकार की चाकरी से ऊपर उठ कर फोर्ड फाउन्डेशन और डच एम्बैसी की शेष-शैया में बैठे हैं..

जारी.....