Friday, September 2, 2011

ठीक ही हम वहां नहीं थे : मकसद,मसीहा और जन का मिथक-III

आन्दोलन के दौरान जोर शोर से हमें बताया जाता रहा कि लाखो-लाख जनता सड़कों पर उतर गयी है. अन्ना हजारे ने इस बीच यह दावा भी कर दिया कि उनका आन्दोलन 120 करोड़ लोगों की इच्छाओं का इजहार है. इस दावे के प्रमाण के रूप में हमें 16 अगस्त को तिहाड़ जेल के बाहर जमा भीड़ के विजुअल्स परोसे गए. अगले दिन इंडिया गेट पर जमा कुछ हज़ार लोगों की तस्वीरें दिखाई गयी और 80000 की क्षमता वाले रामलीला मैदान जिसके तीन चौथाई हिस्से पर पानी भरा हुआ था, के एक कोने में जमा 4 -5000 लोगों को लाखों-लाख की भीड़ बता कर लगभग यह तथ्य स्थापित कर दिया गया कि अन्ना के समर्थन में पूरा भारत सड़कों पर उतर आया है. यहाँ बड़े ही शातिराना तरीके से एक जनतांत्रिक आन्दोलन के अधिकार को कुचलने की सरकारी कोशिश के खिलाफ हुयी लामबंदी को भी अन्ना के मकसद और जन लोकपाल ड्राफ्ट के समर्थन के साथ एकाकार कर दिया गया. याद कीजिये कि अन्ना को गिरफ्तार कर उनके आन्दोलन को कुचलने की कोशिश की विपक्ष में बैठी सभी राजनैतिक पार्टियों ने आलोचना की थी. मजबूत लोकपाल (टीम अन्ना का जन लोकपाल नहीं) की स्थापना को लेकर 23 अगस्त को 9 राजनैतिक दलों के प्रदर्शन को भी अन्ना के अभियान के हिस्से के रूप में ही हमारे सामने प्रस्तुत किया गया. दूसरे शहरों में भी सौ-दो सौ से लेकर चार-पांच हज़ार तक की रैलियां निकाली गयी और यह सब एक अपार और अतुलनीय जन उभार में बदल दिया गया जिसमे सवा अरब भारतीयों की आवाज़ शरीक थी. अन्ना के संसद को घेर लेने के आवाहन पर कुछ सौ लोग संसद घेरने पहुँच गए और इसके बाद अपने-अपने सांसदों का घेराव करने की अपील पर दिल्ली और मुंबई में तीन दिनों के दरमियान तकरीबन डेढ़ दर्ज़न सांसदों का घेराव 30 से लेकर 100 लोगों की 'अपार' भीड़ ने अलग अलग किया.



इस पूरे दौर में पुलिस अभूतपूर्व रूप से न केवल संयमित बनी रही बल्कि कई बार आन्दोलनकारियों की सहयोगी की भूमिका में नज़र आती रही. ज़रा संसद में जबरन घुसने का प्रयास कर रहे युवक के और एक शाम रामलीला मैदान के बाहर पीटे जा रहे पुलिस वालों के विजुअल्स को याद करिए. इसी मैदान पर कुछ माह पहले रामदेव के टेंट के भीतर जमा 25000 की भीड़ और पुलिस के समीकरण की तुलना 100-200 अन्ना भक्तों और पुलिस के समीकरण से कीजिये. ज़रा राहुल गाँधी के आवास के बाहर धरना दे रहे 50 युवकों की भंगिमा याद करिए जो राहुल गाँधी के ही भेजे गए समोसे और कोल्ड ड्रिंक्स उड़ाते हुए उनके चेहरों पर नुमायाँ थी. मुंबई में प्रिया दत्त और उनके आवास पर प्रदर्शन कर रहे 40-50 लोगों की आत्मीयता के मर्म में जाने की कोशिश करिए. 800 से ज्यादा सांसदों में से सिर्फ डेढ़ दर्ज़न के आवासों पर तीन दिनों में 50-100 लोगों का शांतिपूर्ण आत्मीयता से लबरेज़ प्रदर्शन किसी भी रियलिटी शो को मात करने में सक्षम था. पूरे जलसे के दौरान पुलिस को बिना डंडे के तैनात किया गया था और जाहिर है कि उन्हें खुद पिटकर भी प्रतिक्रिया न करने के निर्देश काफी ऊपर से ही दिए गए होंगे. आखिर यह भारत की आत्मवान जनता थी. या यह भारत की जनता की आत्मा थी?



लेकिन इस भीड़ में आत्महीन शामिल नहीं थे और उनकी गिनती जनता में करने की नादानी कौन कर सकता है. इसमें उदित राज द्वारा इंडिया गेट पर ही आयोजित रैली में हिस्सा लेने पहुंचे हज़ारों दलित शामिल नहीं थे. इसमें उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के समर्थक शामिल नहीं थे. इसमें लालू, मुलायम, शरद पवार जैसों के मतदाता भी शामिल नहीं रहे होंगे. पच्छिम-बंगाल,केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि से भी किन्ही उल्लेखनीय तबको के इसमें शामिल होने की सूचना नहीं मिली है. मुझे तो लगता है कि उसमे रामलीला मैदान में पहुंची वो औरत भी शामिल नहीं होगी, जिसने किसी खबरिया चैनल को बाईट देते समय अपने वहां आने का कारण यह बताया था कि वह अपने बच्चे के पब्लिक स्कूल द्वारा की गयी बेहिसाब डोनेशन वसूली से तंग होकर वहां आई थी. लेकिन अन्ना हजारे खुद कहते हैं कि वे चुनाव लड़ेंगे तो उनकी जमानत जब्त हो जायेगी. उनके हिसाब से हिन्दुस्तान का 70 प्रतिशत मतदाता पैसे या शराब लेकर वोट दे देता है. यह मतदाता भ्रष्ट है तभी तो भ्रष्ट सांसद और सरकारें चुनी जा रही हैं. और यह बात यकीनी तौर पर कही जा सकती है कि अन्ना इन भ्रष्ट मतदाताओं के हितों के लिए नहीं लड़ रहे हैं. वे उनके प्रतिनिधि के तौर पर भी लड़ना नहीं पसंद करेंगे. उन्हें वे न तो आत्मा वाला मान सकते हैं न जनता की आत्मा. अन्ना हजारे तो आत्मा की आवाज़ सुनते हैं और ज्यादातर मामलों में अपनी आत्मा की.



जब अन्ना के मंच से राजनेताओं को अनपढ़, जाहिल और गंवार कह कर गाली दी जाती है तो उसका लक्ष्य कौन नेता होते हैं? कांग्रेस, भाजपा के सारे स्टार नेता काफी पढ़े लिखे हैं और कई ने तो विदेशों में शिक्षा हासिल की है. लालू, पासवान, शरद यादव, के बारे में भी मत सोचिये. ये सब उच्च शिक्षित हैं. अन्ना से क्या तुलना करें उनकी टीम के भी कई सदस्य इनके आगे कहीं नहीं ठहरते. अनपढ़ और जाहिल दिखने वाले अधिकांश सांसद सुरक्षित सीटों से चुनाव जीत कर आने वाले दलित तबको के नेता हैं. ठीक ही दलित अन्ना के इस पूरे अभियान को अपने लिए खतरे के तौर पर लेते हैं. 3000 साल की दासता के बाद इन तबको को भारतीय संविधान के तहत कुछ मौके हासिल हुए हैं. लेकिन आंबेडकर के ड्राफ्ट किये हुए उसी संविधान और उसके जरिये वैधानिक दर्ज़ा पाए प्रतिनिधियों को जब कूड़े दान में फेंकने का षड्यंत्र किया जाय तो क्यों न दलित इसे अपने ही खिलाफ एक षड्यंत्र के रूप में ले. इस तर्क से उन्हें बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता कि संविधान में पहले ही 100 से ज्यादा संशोधन किये जा चुके हैं. टीम अन्ना के जो विद्वान् वकील संविधान बदलने के लिए इतने तत्पर दीखते हैं उन्हें संवैधानिक इतिहास के साथ साथ केशवानंद भारती, गोकुलानंद, मेनका गाँधी और उसके बाद के तमाम मामलों में उच्चतम न्यायालय के निर्णयों की जानकारी नहीं है जिनके माध्यम से संविधान की मूल संरचना से छेड़छाड़ पर रोक लगायी गयी है और उसे व्याख्यायित किया गया है. या उनका एजेंडा कुछ और ही है!



सोचिये कि सवा अरब के देश में अगर कुछ हज़ार या 1-2 लाख लोगों की सुनियोजित और जहरीले प्रचार अभियान से उकसाई गयी हंगामी भीड़ को ही जनता मान कर या एक गढ़े गए मसीहा की अंतरात्मा की आवाज़ को ही जन-भावना का ज्वार मान कर संविधान बदलने की बात शुरू कर दी जाय, चुनी हुयी संस्थाओं सहित पूरी राजनैतिक प्रणाली की बखिया उधेड़ डाली जाय, और उसके सर पर एक गैर-जवाबदेह अति सत्ता-संपन्न ढांचा स्थापित करने को औचित्य प्रदान कर दिया जाय तो अयोध्या में बाबरी मस्जिद वाली विवादित जमीन पर कानून बना कर मंदिर खड़ा करने से कौन रोक सकता है? मंदिर के आन्दोलन में अन्ना के आन्दोलन की तुलना में दसियों गुना भीड़ शामिल थी. आरक्षण के विरोध का आन्दोलन भी अन्ना के आन्दोलन से बहुत बड़ा और आवेगपूर्ण था. उसमे कई छात्रों ने अपनी जान दे दी थी. आज जो दलीलें टीम अन्ना बढ़ा रही है उनका अर्थ उस दौर में समझिये. खाप पंचायतों की मध्य युगीन मूल्यों को बचाने के लिए अन्ना से बड़ी पंचायत के हम साक्षी रह चुके हैं और ध्यान रखिये पच्छिमी उत्तर प्रदेश- हरियाणा की खाप पंचायते टीम अन्ना से कहीं ज्यादा दिल्ली को घेरने, डराने और अस्त-व्यस्त कर देने का माद्दा रखती हैं. तर्क सबके पास हैं. आखिर शाहबानो प्रकरण में सरकार ने छोटे से समूह के हितों के आगे घुटने टेके ही थे.



जब राजनीतिज्ञों के एक हिस्से की ओर से संसद की संप्रभुता का दावा कर इस आन्दोलन को लोकतंत्र पर हमले के रूप में विश्लेषित करने का प्रयास किया गया तो टीम अन्ना की तरफ से पहले संविधान को सर्वोच्च बताया गया. पर जब कुछ गंभीर पत्रकारों और वकीलों ने इशारा किया कि जन लोकपाल के प्रावधान संविधान की मूलभूत संरचना को ही बदल डालने वाले हैं(ज़रा शान्ति भूषन द्वारा ड्राफ्टिंग कमेटी की पहली बैठक में जाते समय की गयी उस घोषणा और उसके पीछे छिपे अहंकार को याद करिए कि 'हम नया संविधान लिखने जा रहे हैं') तो तुरुप के पत्ते की तरह संविधान की प्रस्तावना को पेश कर दिया गया. इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि 'हम भारत के लोग यानी We, the People of India' ही अंतिम रूप से संप्रभु हैं और देश में लोकतंत्र होने का पहला अर्थ भी यही है. लेकिन इसका ठीक अगला सवाल यह है हम भारत के लोग हैं कौन और हमारी इच्छाओं का प्रतिनिधित्व कौन लोग, समूह या संस्थाएं करती हैं? टीम अन्ना या उनके सुनियोजित प्रचार अभियान से प्रेरित सड़कों पर उतर आये कुछ हज़ार लोग? या फिर सिविल सोसाइटी ही भारत के लोग होने का दावा रखती है और अगर वह रखती है तो सिविल सोसाइटी का कौन सा हिस्सा? इसमें अरुणा रॉय या अरुंधती रॉय वाली सिविल सोसाइटी तो कतई शामिल नहीं होगी. टीम अन्ना भारत के 70 प्रतिशत मतदाताओं के प्रति अवमानना का भाव रखती है. वह जनता की आवाज़ और इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली वैधानिक संस्थाओं को पानी पी-पी कर कोसती-गरियाती है. वह दरअसल अपने सिवा सबको या तो नीच, गिरा हुआ और भ्रष्ट मानने या अनपढ़ और गंवार समझने के अहंकार से मनोरोगियों वाले स्तर तक ग्रस्त है. अन्ना भक्तों के सामने जब इस तरह के असहज तथ्य और तर्क लाये जाते हैं तो वे खीझते हैं, क्रुद्ध होते है या लड़ने पर आमादा हो जाते हैं.



अन्ना के अनुयाइयों में शामिल अति शिक्षित और बुद्धिमान सदस्य इससे आगे के तर्क भी रखते हैं. अगर अन्ना का विरोध कर रहे समझदार या हमारे जैसे दुराग्रही तत्व उनके आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भागीदारी करते तो इस आन्दोलन की कई कमियों को आसानी से दूर किया जा सकता था और इसे ज्यादा जनवादी एवं समावेशी रास्ते पर ले जाया जा सकता था. या इस आन्दोलन से कुछ तो हुआ. एक शुरुआत तो हुयी. कुछ नहीं तो कम से कम भ्रष्टाचार पर बहस तो शुरू हुयी. यह कहना कुछ वैसा ही है कि अगर हम बाबरी मस्जिद ढहाने के आन्दोलन में शामिल हो गए होते तो उस की कमियों को दूर कर लिया गया होता या उसकी दिशा बदली जा सकी होती. और कुछ नहीं तो धर्मनिरपेक्षता-साम्प्रदायिकता या बहुलतावादी समाज की अवधारणाओं पर बहस तो उसके बाद भी शुरू हुयी और तब से अब तक ये मुद्दे भारतीय राजनीति के केन्द्रीय मुद्दों में बने हुए हैं. या यूथ फॉर इक्वलिटी के आन्दोलन में शामिल होकर हम समानता और जातिवाद के मुद्दे को भारतीय राष्ट्र-राज्य की केन्द्रीय विषय वस्तु बना सकते थे. आखिर भ्रष्टाचार की ही तरह असमानता,शोषण, जातिवाद वगैरह के खिलाफ लड़ने से कौन इनकार कर सकता है. सार्वजानिक रूप से तो कोई भी नहीं. माफ़ कीजिये इस बहस या विमर्श के केन्द्रीय स्थान ग्रहण कर लेने का एक बड़ा कारण वही लोग हैं जो वहां जंतर-मंतर या रामलीला मैदान में नहीं थे परन्तु आन्दोलन के पीछे छिपी हुयी मंशा,अभिलाषा व कामना को देख पा रहे थे, उसके खिलाफ सोच रहे थे, पढ़-लिख रहे थे, बहस कर रहे थे....

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